शनि ग्रह तुला राशि में २० अंश पर परमोच्य
और मेष राशि में २० अंश पर नीच रहता है. शनि सूर्या का पुत्र लेकिन पितृ शत्रु भी
माना जाता है. शनि के प्रति जन मानस में अनेक भ्रांतियां हैं . कई लोग शनि को अशुभ
ग्रह मानते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि शनि संतुलन बनाकर प्रकृति में प्रत्येक
प्राणी के साथ न्याय करता है.
स्कंध पुराण में शनि जन्म की कथा आती है
कि सूर्य का विवाह दक्ष की कन्या “संज्ञा” के साथ हुआ. सूर्या के द्वारा संज्ञा के
गर्भ से तीन संतान हुई.
१- वैववश्वत मनु
२- यमराज
३- यमुना
भगवान सूर्य का तेज बड़ा प्रबल था और जिस
तेज को संज्ञा सहन नही कर पाती थी. सूर्या के तेज को कम करने के लिये संज्ञा ने तप
किया और तपोबल से अपनी जैसी दिखने वाली छाया को जन्म दिया जिसका नाम सुवर्णा रखा.
सुवर्णा को संज्ञा ने अपने बच्चों की जिम्मेदारी देते हुए कहा- मेरे बच्चों की
परवरिश करना, कोई आपति आवे तो मुझे कहना लेकिन यह भेद गुप्त रखना और किसी को मत
बताना. अपने आप संज्ञा अपने मायके चली आयी. पिता ने बहुत फटकार लगाई कि बेटी को
ससुराल छोड़कर पति की आज्ञा के बिना मायके नही आना चाहिए दोष लगता है. तुम पुन:
अपने ससुराल चली जाओ. संज्ञा ने विचार किया कि आज ही मैंने छाया को कार्यभार सौंपा
है तो उसका क्या होगा, इसलिए ससुराल न जाकर जंगल में घोड़ी का रूप धारण करके तप
करने लगी.
इधर छाया और सूर्या के मिलन से तीन बच्चों
का जन्म हुआ-
१-
मनु
२-
शनि
३-
भद्रा (लड़की)
जब शनि देव माँ के गर्भ में थे तो छाया ने
घोर तप किया और उस तप की शक्ति का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ा . भीषण गर्मी में
तप करने के कारण गर्भस्थ शिशु का रंग काला पड़ गया और जब बच्चे ने जन्म लिया तो वह
काला हुआ. सूर्या ने जैसे ही बच्चे का रंग काला देखा तो हैरान हो गये, छाया पर शक किया,
छाया को अपमानित किया और कहा कि यह मेरा बेटा नही हो सकता है.
शनि के अंदर माँ की तपस्या का बल था. अपनी
माँ को जो अपमानित होते हुए देखा तो पिता पर क्रोध आया और क्रूर दृष्टि से अपने
पिता सूर्या को देखा. देखते देखते सूर्या के शरीर का रंग काला हो गया, सूर्या के
घोड़ों की चाल रुक गयी, सूर्या ने भगवान भोलेनाथ को पुकारा. भोलेनाथ ने कहा- तुमने
अपनी स्त्री और पुत्र का अपमान किया है उसी के दोष के कारण ये सब हो रहा है. उसके
बाद सूर्या देव ने क्षमायाचना की और पुन: अपना सुन्दर स्वरुप प्राप्त किया, घोड़ों
की गति पूर्वरत हो गयी. लेकिन तब से शनि देव अपने पिता सूर्या के विद्रोही बन गये
और अपनी माता के परम प्रिय बन गये.
भारतीय ज्योतिष के अनुसार शनि की २
राशियाँ हैं मकर और कुम्भ. शनि ग्रह जब रोहिणी का भेदन करता है तो तब पृथिवी पर अकाल
पड़ने लगता है और यही योग जब राजा दशरथ के समय आने वाला था- तब राजा दशरथ ने
ज्योतिषियों का सहारा लिया और ज्योतिषियों ने कहा जब यह योग आएगा तब अन्न जल का
अभाव होगा और अन्न जल के अभाव से प्रजा तड़फ
तड़फ कर मर जायेगी. दशरथ को चिंता हुई और नक्षत्र मण्डल में जाकर शनि देवता
की प्रार्थना की और शनि स्त्रोत की रचना
कर नित्य शनि की अराधना करने लगे, शनि देवता प्रसन्न हुए और दशरथ जी को वर मांगने
को कहा.
तब दशरथ जी ने कहा कि- जब तक सूर्या एवं
नक्षत्रादि विद्यमान रहे तब तक आप किसी देवता, मनुष्य आदि को भी कष्ट न दें.
लेकिन शनि देव ने कहा- जो आपके द्वारा
रचित शनि स्त्रोत्र का नित्य वाचन करता रहेगा उसे में कभी पीड़ा नही दूँगा, अन्यथा
जो नही करेगा तो जब में गोचर वश भ्रमण करूँगा तो मृत्यु तुल्य कष्ट दूँगा.
इसलिए शनि की शान्ति हेतु श्री
महामृत्यंजय जप, तिल लोहा, काला वस्त्र, कस्तूरी आदि दान करना चाहिए. गोचर में जब
शनि चंद्र राशि पर भ्रमण करते हैं तो साढ़ेसाती मानी जाति है. प्रत्येक मनुष्य को
३० साल में एक साढ़ेसाती अवश्य आती है और साढ़ेसाती के दौरान शनि देवता पूर्व के
किये हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य देते हैं. शनि के साढ़ेसाती के समय शनि स्त्रोत का
पाठ, सुन्दरकाण्ड, महामृत्यंजय जप आदि करना शुभ रहता है.
शनि के साढ़ेसाती के काल में ईश्वर आराधन
परमावश्यक है. शनि के साढ़ेसाती के काल मनुष्य को अच्छे कार्य करने के बारे में
सोचना चाहिए और मन को सदैव प्रभु चरणों में लगाना चाहिए. ऐसा करने से शनि ग्रह
संकट ग्रस्त स्तिथि में मनुष्य को दुःख के तीक्ष्ण घावों को सहन करने की अदुतीय
शक्ति प्रदान करता है.
हमारा ब्यक्तिगत मत है कि ग्रहों की
आराधना वंदन करना प्रत्येक मनुष्य का परम् कर्तव्य है, अन्यथा वह कष्ट का
भाग्गेदार बनता है, ऐसे अनेक उदाहरण हमारे धर्म शास्त्रों और आज के लोक जीवन में
देखने को मिलते हैं.
शुभम भूयात
आचार्य पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री
(काण्डपाल)
कथा वाचक, वेदपाठी, कर्मकाण्डी एवं ज्योतिषी Acharya Vipin Krishna ShastriJyotishi, Vedpathi & Katha VachakMobile- 09015256658, 09968322014