Tuesday, 30 December 2014
Tuesday, 4 November 2014
ज्योतिष में नक्षत्रों का महत्व
जीवन में किसी भी प्रकार का यदि आप शुभ कार्य करते हैं तो उस कार्य को
प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम नक्षत्र का
विचार अवश्य कर लेना चाहिए जिस समय नक्षत्र का शुभ काल आरम्भ हो उसी समय कार्य
आरम्भ करना चाहिए नक्षत्र [काल]अर्थात समय का एक मुख्य अंग है और इसका ज्ञान होना
परम आवश्यक है आकाश मण्डल के बारह भाग को राशि और सत्ताईश विभाग को नक्षत्र कहते
हैं चंद्रमा को प्रत्येक नक्षत्र का भ्रमण करने में १२ अंश २० कला का समय लगता है
इस गति से भ्रमण करने पर चन्द्रमा २७ नक्षत्रो का भ्रमण ३६० अंश में पूर्ण करता है
जिस प्रकार से मनुष्य बस या रेलगाड़ी से जब भ्रमण करता है तो बीच मार्ग में छोटे
छोटे स्टेशनों पर भी दृष्टिपात करता है अथवा ये कहा जाय कि मनुष्य ने बीच बीच में
छोटे छोटे स्टेशनों का निर्माण भी किया है उसी प्रकार सृष्टि कर्ता ने आकाश मंडल
में राशि और नक्षत्र रूपी तारों के रूप में छोटे छोटे स्टेशनों का निर्माण कर उनका
अंतर निश्चित किया है सृष्टि के आरम्भ
काल से लेकर आजतक ये तारे अपने स्थान पर
स्थित हैं इसलिए इन्हें स्थिर अथवा निश्चल कहते हैं
न सरति
तत् नक्षत्रम
फलित वर्तते समय सर्व प्रथम नक्षत्र का विचार किया जाता है
१-अश्वनी
२-भरणी
३-कृतिका
४-रोहणी
५-मृगशिरा
६-आर्द्रा
७-पुनर्वसु
८-पुष्य
९-अश्लेषा
१०-मघा
११-पूर्वा फाल्गुनी
१२-उत्तरा फाल्गुनी
१३-हस्त
१४-चित्रा
१५-स्वाति
१६-विशाखा
१७-अनुराधा
१८-ज्येष्ठा
१९-मूल
२०-पूर्वाषाढा
२१-उत्तराषाढा
२२-श्रवण
२३-धनिष्ठा
२४-शतभिषा [शत तारका ]
२५-पूर्वा भाद्रपद
२६-उत्तरा भाद्रपद
२७- रेवती
इस प्रकार से इन सत्ताईश नक्षत्रों के सिवाय अभिजित नाम एक नक्षत्र और
है लेकिन इसकी गणना नक्षत्रों की कक्षा में नहीं की गई है क्योकि चन्द्रमा जिस
मार्ग से आकाश में भ्रमण करता है उस मार्ग से यह नक्षत्र उत्तर दिशा में बाहर की
ओर होने के कारण चन्द्र नक्षत्रो में इसका वर्णन नहीं किया जाता है
नक्षत्रों में शुभ ओर अशुभ नक्षत्र भी होते हैं इसलिए प्रत्येक कार्य
को करने के लिये इनका विचार करना परम आवश्यक है .
२७ नक्षत्रों में १८ नक्षत्र शुभ माने गये हैं ओर बाकी ९ नक्षत्र –भरणी
,कृत्तिका ,आर्द्रा,आश्लेषा,मघा,ज्येष्ठा ,मूल,धनिष्ठा ,शतभिषा [शततारका ] ये अशुभ
माने गये हैं अत:इसका विचार अवश्य कर लेना चाहिए.
क्रमश: जारी......
शुभम भूयात
पंडित आचार्य विपिन कृष्ण शास्त्री
Pandit Acharya Vipin Krishna Shastri
Hindu Priest & Astrologer
Monday, 20 October 2014
दीपावली पर्व 23 अक्टूबर 2014
दीपावली पर्व का भारत के त्योहारों में विशिष्ठ
स्थान है इस दिन धन धान्य की अधिष्ठात्री देवी भगवती लक्ष्मी के पूजन का विशेष
महत्व है.
भारतीय धर्म शास्त्रों के अनुसार इसी दिन समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थी और भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार
किया था।
इस दिन जब भगवान रामचंद्र लंका से रावण का उद्धार करके वापस आए तो उनका राज्यारोहण किया गया था और इस ख़ुशी के पावन अवसर पर सभी अयोध्यावासियों ने
अपने घरों में दीप जलाए थे।
इसी समय किसानों के घर में नवीन अन्न आते हैं, जिसकी ख़ुशी में दीपक जलाए जाते हैं।
यह धारणा है भी है कि इसी दिन अमावस्या से
पितरों की रात
आरम्भ होती है। कहीं वे मार्ग भटक न जाएं, इसलिए उनके लिए दीपक जलाकर प्रकाश की व्यवस्था इस रूप में की जाती है। इसीलिए
दीपावली हमारे भारतवर्ष के प्रमुख त्योहारों में से एक है यह पर्व अलग –अलग नाम से
पुरे भारतवर्ष में मनाया जाता है .कोई इसे दीपावली कहता है कोई दिवाली कहता है तो
इसी प्रकार उत्तराखण्ड में इस पर्व को बग्वाल नाम से जाना जाता है
मुहूर्त
‘’सर्वे दोषा:विनश्यन्ती लग्न
शुद्धिर्यदा भवेत्’’
कुछ
व्यापारी व्यवसायी लोग पूजन के लिये धनु लग्न को विशेष मान्यता देते है और उनकी यह
धारणा बिलकुल सही है क्योकि धनु लग्न के स्वामी वृहस्पति जी हैं जो कि शुभ ग्रह हैं
धनु लग्न
10:39 से 12:42 तक रहेगा .चर का चौघडिया 10:42 से प्रारंभ हो जाएगा और पूजा कार्य में श्रेष्ठ रहेगा.
मकर लग्न
12:42 से प्रारम्भ होकर 14:25 तक
रहेगा जिसमे लाभ अमृत का चौघडिया तो उत्तम रहेगा लेकिन राहु काल शुभ नहीं रहेगा
लग्नेश शनि होने से कारोबार में वृद्धि होगी और उच्चस्थ वृहस्पति की दृष्टि लग्न
पर रहेगी जो उत्तम योग बनाता है.
कुम्भ
लग्न 14:25 से 15:53 तक
रहेगा लेकिन यह लग्न 15:00 बजे तक राहुकाल से ग्रसित रहेगा इसलिए मेरा
व्यक्तिगत मानना है कि यह लग्न पूजन के उपयुक्त नहीं है. तत्पश्चात
मीन लग्न का आरंभ 15:53 से होगा और 17:18 मिनट तक
रहेगा इसी बीच 16:14 बजे से सूर्यास्त तक शुभ का चौघडिया बहुत अच्छा योग
कारक रहेगा .लग्न पर उच्च के वृहस्पति की दृष्टि और भाग्येश की भी दृष्टि रहेगी
इसलिए यह समय पूजन के अत्यंत लाभकारी रहेगा .
मेष लग्न
17:18 से 18:54 तक
रहेगा प्रदोष के समय मेष लग्न में पूजन करना उत्तम कारक रहेगा
‘’प्रदोष
समये राजन कर्त्तव्या दीपमालिका ‘’
लग्नेश
मंगल की स्थिति भाग्य स्थान में भाग्य विकास के लिये लाभप्रद रहेगी और अमृत चर के
चौघडिया में माता लक्ष्मी की अपार कृपा बरसेगी .
स्थिर
लग्न वृष 18:54 से प्रारम्भ होगा इस लग्न में स्थिर कर्म करने वाले
दुकानदार ,वाहन आदि के निर्माता विक्रेता यदि पूजन करें तो निश्चित ही उनको सफलता
मिलेगी और कारोवार में वृद्धि होगी .
मिथुन
लग्न 20:50 से 23:03 के मध्य
रहेगा लेकिन लग्नेश बुध राहु से ग्रसित चतुर्थ भाव में निर्बल रहेगा इसलिए विशेष
बुध ग्रह के पूजन के पश्चात दीपावली पूजन करना श्रेयस्कर रहेगा .
कर्क
लग्न 23:03 से लेकर मध्य रात्रि 1:23 तक रहेगा
और इसी निशीथ काल में समुद्र से भगवती लक्ष्मी प्रकट हुई थी.
निशीथे
लक्ष्म्यादि पूजनं कृत्यं शुभम
इस काल
में पूजन करना विशेष शुभ रहेगा ..
शुभम
भूयात
आचार्य
विपिन कृष्ण काण्डपालMonday, 22 September 2014
Jyotish-शनि ग्रह एक संक्षिप्त परिचय
03:09
astrologer in delhi, Jyotish, vipin krishna shastri, ज्योतिष, भारतीय ज्योतिष, शनि ग्रह, शनि साढ़ेसाती
No comments
शनि ग्रह तुला राशि में २० अंश पर परमोच्य
और मेष राशि में २० अंश पर नीच रहता है. शनि सूर्या का पुत्र लेकिन पितृ शत्रु भी
माना जाता है. शनि के प्रति जन मानस में अनेक भ्रांतियां हैं . कई लोग शनि को अशुभ
ग्रह मानते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि शनि संतुलन बनाकर प्रकृति में प्रत्येक
प्राणी के साथ न्याय करता है.
स्कंध पुराण में शनि जन्म की कथा आती है
कि सूर्य का विवाह दक्ष की कन्या “संज्ञा” के साथ हुआ. सूर्या के द्वारा संज्ञा के
गर्भ से तीन संतान हुई.
१- वैववश्वत मनु
२- यमराज
३- यमुना
भगवान सूर्य का तेज बड़ा प्रबल था और जिस
तेज को संज्ञा सहन नही कर पाती थी. सूर्या के तेज को कम करने के लिये संज्ञा ने तप
किया और तपोबल से अपनी जैसी दिखने वाली छाया को जन्म दिया जिसका नाम सुवर्णा रखा.
सुवर्णा को संज्ञा ने अपने बच्चों की जिम्मेदारी देते हुए कहा- मेरे बच्चों की
परवरिश करना, कोई आपति आवे तो मुझे कहना लेकिन यह भेद गुप्त रखना और किसी को मत
बताना. अपने आप संज्ञा अपने मायके चली आयी. पिता ने बहुत फटकार लगाई कि बेटी को
ससुराल छोड़कर पति की आज्ञा के बिना मायके नही आना चाहिए दोष लगता है. तुम पुन:
अपने ससुराल चली जाओ. संज्ञा ने विचार किया कि आज ही मैंने छाया को कार्यभार सौंपा
है तो उसका क्या होगा, इसलिए ससुराल न जाकर जंगल में घोड़ी का रूप धारण करके तप
करने लगी.
इधर छाया और सूर्या के मिलन से तीन बच्चों
का जन्म हुआ-
१-
मनु
२-
शनि
३-
भद्रा (लड़की)
जब शनि देव माँ के गर्भ में थे तो छाया ने
घोर तप किया और उस तप की शक्ति का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ा . भीषण गर्मी में
तप करने के कारण गर्भस्थ शिशु का रंग काला पड़ गया और जब बच्चे ने जन्म लिया तो वह
काला हुआ. सूर्या ने जैसे ही बच्चे का रंग काला देखा तो हैरान हो गये, छाया पर शक किया,
छाया को अपमानित किया और कहा कि यह मेरा बेटा नही हो सकता है.
शनि के अंदर माँ की तपस्या का बल था. अपनी
माँ को जो अपमानित होते हुए देखा तो पिता पर क्रोध आया और क्रूर दृष्टि से अपने
पिता सूर्या को देखा. देखते देखते सूर्या के शरीर का रंग काला हो गया, सूर्या के
घोड़ों की चाल रुक गयी, सूर्या ने भगवान भोलेनाथ को पुकारा. भोलेनाथ ने कहा- तुमने
अपनी स्त्री और पुत्र का अपमान किया है उसी के दोष के कारण ये सब हो रहा है. उसके
बाद सूर्या देव ने क्षमायाचना की और पुन: अपना सुन्दर स्वरुप प्राप्त किया, घोड़ों
की गति पूर्वरत हो गयी. लेकिन तब से शनि देव अपने पिता सूर्या के विद्रोही बन गये
और अपनी माता के परम प्रिय बन गये.
भारतीय ज्योतिष के अनुसार शनि की २
राशियाँ हैं मकर और कुम्भ. शनि ग्रह जब रोहिणी का भेदन करता है तो तब पृथिवी पर अकाल
पड़ने लगता है और यही योग जब राजा दशरथ के समय आने वाला था- तब राजा दशरथ ने
ज्योतिषियों का सहारा लिया और ज्योतिषियों ने कहा जब यह योग आएगा तब अन्न जल का
अभाव होगा और अन्न जल के अभाव से प्रजा तड़फ
तड़फ कर मर जायेगी. दशरथ को चिंता हुई और नक्षत्र मण्डल में जाकर शनि देवता
की प्रार्थना की और शनि स्त्रोत की रचना
कर नित्य शनि की अराधना करने लगे, शनि देवता प्रसन्न हुए और दशरथ जी को वर मांगने
को कहा.
तब दशरथ जी ने कहा कि- जब तक सूर्या एवं
नक्षत्रादि विद्यमान रहे तब तक आप किसी देवता, मनुष्य आदि को भी कष्ट न दें.
लेकिन शनि देव ने कहा- जो आपके द्वारा
रचित शनि स्त्रोत्र का नित्य वाचन करता रहेगा उसे में कभी पीड़ा नही दूँगा, अन्यथा
जो नही करेगा तो जब में गोचर वश भ्रमण करूँगा तो मृत्यु तुल्य कष्ट दूँगा.
इसलिए शनि की शान्ति हेतु श्री
महामृत्यंजय जप, तिल लोहा, काला वस्त्र, कस्तूरी आदि दान करना चाहिए. गोचर में जब
शनि चंद्र राशि पर भ्रमण करते हैं तो साढ़ेसाती मानी जाति है. प्रत्येक मनुष्य को
३० साल में एक साढ़ेसाती अवश्य आती है और साढ़ेसाती के दौरान शनि देवता पूर्व के
किये हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य देते हैं. शनि के साढ़ेसाती के समय शनि स्त्रोत का
पाठ, सुन्दरकाण्ड, महामृत्यंजय जप आदि करना शुभ रहता है.
शनि के साढ़ेसाती के काल में ईश्वर आराधन
परमावश्यक है. शनि के साढ़ेसाती के काल मनुष्य को अच्छे कार्य करने के बारे में
सोचना चाहिए और मन को सदैव प्रभु चरणों में लगाना चाहिए. ऐसा करने से शनि ग्रह
संकट ग्रस्त स्तिथि में मनुष्य को दुःख के तीक्ष्ण घावों को सहन करने की अदुतीय
शक्ति प्रदान करता है.
हमारा ब्यक्तिगत मत है कि ग्रहों की
आराधना वंदन करना प्रत्येक मनुष्य का परम् कर्तव्य है, अन्यथा वह कष्ट का
भाग्गेदार बनता है, ऐसे अनेक उदाहरण हमारे धर्म शास्त्रों और आज के लोक जीवन में
देखने को मिलते हैं.
शुभम भूयात
आचार्य पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री
(काण्डपाल)
कथा वाचक, वेदपाठी, कर्मकाण्डी एवं ज्योतिषी Acharya Vipin Krishna ShastriJyotishi, Vedpathi & Katha VachakMobile- 09015256658, 09968322014
Wednesday, 10 September 2014
जीवन में धर्म की परम आवश्यकता
धर्म सदैव ऊचे स्थान पर प्रतिष्ठित है हमारे धर्म शास्त्र ,और संत
महात्माओं के उपदेशों से सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण संसार धर्म पर प्रतिष्ठित
है धर्म के विना यह मानव जीवन पशु के समान है धर्म का स्वरुप जैसा भी हो परन्तु
धर्म का पालन प्रत्येक देश और जाति में सदा से चला आ रहा है लेकिन आज बड़ी दुःख की
बात है कि धर्म प्राण भारतवर्ष में आज ईश्वर और धर्म के तत्व से अनभिज्ञ होने के
कारण कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि धर्म ही हमारे सर्व नाश का कारण है धर्म के कारण
ही देश परतंत्र हो रहा है ,धर्म ही हमारे सर्वांगीण विकास में वाधक है इस प्रकार
कहने वाले लोग ईश्वर और धर्मवादियों को मूर्ख समझते हैं क्योकि वो अपने आप को अधिक
बुद्धिमान और विद्वान समझने लगता है और उसे अपनी राय के प्रतिकूल दूसरे की अच्छी
सम्मति भी पसंद नहीं आती है लेकिन पद्म पुराण में धर्म के लक्षण बताए हैं
ब्रह्मचर्येण सत्येन मखपंचकवर्तनै:
दानेन नियमैश्चापी क्षान्त्या शौचेन वल्लभ
अहिन्सया सुशान्त्या चअस्तेयेनापी वर्तनै:
एतैर्दशभिरंगैस्तु धर्म मेव प्रपूर्येत”
ब्रह्मचर्य,सत्य,पंचमहायज्ञ,दान,नियम,क्षमा ,शौच,अहिंसा ,शान्ति और
अस्तेय इन अंगों से धर्म की पूर्ति करनी चाहिए .
तो अब बताइये क्या कोई व्यक्ति विद्या बुद्धि हीन,सत्य क्षमा रहित ,मन
वाणी शरीर से अपवित्र ,हिंसा परायण अशांत ,दान रहित ,दूसरे का धन हरण कभी सुखी या
उन्नति पा सकता है ?क्या कभी उसकी उन्नति हो सकती है ?क्या धर्म के इन तत्वों से
हीन जाति कभी जगत में सुख पूर्वक टिक सकती है ?क्या प्रत्येक व्यक्ति ,प्रत्येक
जाति के लिये धर्म के इन लक्षणों को चरितार्थ करने की नितांत आवश्यकता नहीं है
?धर्म का मूलच्छेद करने वाले लोग यदि गंभीरता से सोचे तो उन्हे भी समझ में आ जाएगा
कि धर्म ही हमारे लोक परलोक का एक मात्र साथी है .धर्म मनुष्य को दुःख से निकालकर
सुख की शीतल गोद में ले जाता है .
महाराणा प्रताप ,शिवाजी का
नाम धर्माभिमान के कारण ही अमर हुआ है .मीराबाई धर्म के लिये ही जहर का प्याला पी
गई .विचार कीजिए यदि धर्म जाता रहेगा तो मनुष्यों में बचेगा ही क्या? आज धर्म के
अभाव में ही पर धन हरण,माता –बहिनों का अपहरण ,दीनो पर अत्याचार् आदि अनेक प्रकार
की घटनाये हो रही है फिर धर्म का विरोध क्यों?
सनातन धर्म कभी किसी दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता –
धर्मयों बाधते धर्मो न स धर्म:कुधर्मक:
अविरोधात्तु यों धर्म:स धर्म:सत्य विक्रम
जो दूसरे के धर्म का विरोध करता है वह धर्म नहीं कुधर्म है जो दूसरे
धर्म का विरोध नहीं करता वही यथार्थ धर्म है .फिर ऐसे सार्वभोम धर्म पर प्रश्न
चिह्न क्यों?
ये अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि कुछ लोगों ने अपने स्वार्थों की
पूर्ती के लिये धर्म का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया और जिसके कारण समाज में धर्म
के प्रति संशय और दुर्भावना की स्थिति पैदा हो गयी लेकिन हमें यहं नही भूलना चाहिए
एक आदर्श जीवन जीने के लिये जीवन में धर्म का होना नितांत आवश्यक है.
शुभम भूयात
पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री (काण्डपाल)
Pandit Vipin Krishna Shastri (Kandpal)
Wednesday, 6 August 2014
Raksha Bandhan-रक्षावन्धन पर्व 10 अगस्त 2014 [श्रावणी पर्व ]
रक्षावन्धन का पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा को
मनाया जाता है इसे श्रावणी पर्व भी कहते हैं यह त्यौहार भाई -बहिन के अटूट प्रेम
का प्रतीक है। भारतीय सनातन पद्धति के अनुसार रक्षा वन्धन का त्यौहार विश्वास ,समर्पण
व् निष्ठा का त्यौहार है। रक्षा वन्धन का अर्थ है -रक्षा के लिये बांधना,---अर्थात
जब भाई को बहिन राखी बांधती है तो भाई का
परम कर्तव्य बनता है बहिन की पग-पग पर रक्षा करना।
पूर्व
काल में यह पर्व केवल भाई बहिन तक ही सीमित नहीं था अपितु विकट विषम परस्थिति आने पर
किसी के आरोग्य की कामना के लिये यह रक्षा सूत्र किसी को भी बाँधा जाता रहा है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-
''मयि सर्व मिदं प्रोक्तं सूत्रं मणि गवा
इव ''
यह सूत्र विखरे हुए को एक सूत्र में बांधकर
अविछिन्नता दर्शाता है!
लेकिन मेरे पावन भारत वर्ष में इस पर्व को भाई
बहिन के प्रेम व् रक्षा का पवित्र त्यौहार मानते हैं यह प्रेम भ्रातृ प्रेम को
प्रगाढ़ बनाता है और बहिन के द्वारा पहनाया गया रक्षा सूत्र भाई बहिन के बीच प्रेम
व् श्नेह का भाव प्रगट करता है और यही रक्षासूत्र
भाई को प्रतिबद्ध कर देता है कि हर क्षण हर पल कैसी भी विकट परस्थिति क्यों
न आये -भाई का परम कर्तव्य है विकट परस्थिति में बहिन की रक्षा करना। इस पर्व से
जुड़ी अनेक कथाएं हमारे धर्म शास्त्रों में हैं।
इस वर्ष 10 अगस्त 2014 को
रक्षावन्धन का पर्व मनाया जाएगा लेकिन इस दिन भद्रा का योग भी बन रहा है। 9
अगस्त की प्रात: 3:35मिनट से 10 अगस्त की दोपहर
1:37 मिनट तक भद्रा काल रहेगा और धर्म शास्त्रों में भद्रा काल को शुभ
कार्य में वर्जित माना गया है इसलिए 10 अगस्त को दोपहर बाद 1:37
बजे भद्रा काल समाप्त होने के बाद रात्रि 10:39 बजे तक रक्षा
बंधन मनाना शुभ रहेगा।
शुभ मुहूर्त
1-दोपहर 1:37बजे से 3:00 बजे तक शुभ
2-शाम 7:00 बजे से 8:30
बजे तक शुभ
3-रात 8:30 बजे से 10:00
बजे
तक अमृत
Thanks & Regards
Acharya Vipin Krishna (Shastri) Kandpal
Jyotishi, Vedpathi & Katha Vachak
Mobile- 09015256658, 09968322014