Pandit Vipin Krishna Shastri: Astrolger & Katha Vyas

Pandit Vipin Krishna Shastri-Astrolger & Katha Vyas

Pandit Vipin Krishna Shastri-Astrolger & Katha Vyas

Pandit Vipin Krishna Shastri-Astrolger & Katha Vyas

Pandit Vipin Krishna Shastri-Astrolger & Katha Vyas

Pandit Vipin Krishna Shastri-Astrolger & Katha Vyas

Monday 22 September 2014

Jyotish-शनि ग्रह एक संक्षिप्त परिचय

शनि ग्रह तुला राशि में २० अंश पर परमोच्य और मेष राशि में २० अंश पर नीच रहता है. शनि सूर्या का पुत्र लेकिन पितृ शत्रु भी माना जाता है. शनि के प्रति जन मानस में अनेक भ्रांतियां हैं . कई लोग शनि को अशुभ ग्रह मानते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि शनि संतुलन बनाकर प्रकृति में प्रत्येक प्राणी के साथ न्याय करता है.
स्कंध पुराण में शनि जन्म की कथा आती है कि सूर्य का विवाह दक्ष की कन्या “संज्ञा” के साथ हुआ. सूर्या के द्वारा संज्ञा के गर्भ से तीन संतान हुई.

१-      वैववश्वत मनु
२-      यमराज
३-      यमुना

भगवान सूर्य का तेज बड़ा प्रबल था और जिस तेज को संज्ञा सहन नही कर पाती थी. सूर्या के तेज को कम करने के लिये संज्ञा ने तप किया और तपोबल से अपनी जैसी दिखने वाली छाया को जन्म दिया जिसका नाम सुवर्णा रखा. सुवर्णा को संज्ञा ने अपने बच्चों की जिम्मेदारी देते हुए कहा- मेरे बच्चों की परवरिश करना, कोई आपति आवे तो मुझे कहना लेकिन यह भेद गुप्त रखना और किसी को मत बताना. अपने आप संज्ञा अपने मायके चली आयी. पिता ने बहुत फटकार लगाई कि बेटी को ससुराल छोड़कर पति की आज्ञा के बिना मायके नही आना चाहिए दोष लगता है. तुम पुन: अपने ससुराल चली जाओ. संज्ञा ने विचार किया कि आज ही मैंने छाया को कार्यभार सौंपा है तो उसका क्या होगा, इसलिए ससुराल न जाकर जंगल में घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी.

इधर छाया और सूर्या के मिलन से तीन बच्चों का जन्म हुआ-

१-       मनु
२-       शनि
३-       भद्रा (लड़की)

जब शनि देव माँ के गर्भ में थे तो छाया ने घोर तप किया और उस तप की शक्ति का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ा . भीषण गर्मी में तप करने के कारण गर्भस्थ शिशु का रंग काला पड़ गया और जब बच्चे ने जन्म लिया तो वह काला हुआ. सूर्या ने जैसे ही बच्चे का रंग काला देखा तो हैरान हो गये, छाया पर शक किया, छाया को अपमानित किया और कहा कि यह मेरा बेटा नही हो सकता है.

शनि के अंदर माँ की तपस्या का बल था. अपनी माँ को जो अपमानित होते हुए देखा तो पिता पर क्रोध आया और क्रूर दृष्टि से अपने पिता सूर्या को देखा. देखते देखते सूर्या के शरीर का रंग काला हो गया, सूर्या के घोड़ों की चाल रुक गयी, सूर्या ने भगवान भोलेनाथ को पुकारा. भोलेनाथ ने कहा- तुमने अपनी स्त्री और पुत्र का अपमान किया है उसी के दोष के कारण ये सब हो रहा है. उसके बाद सूर्या देव ने क्षमायाचना की और पुन: अपना सुन्दर स्वरुप प्राप्त किया, घोड़ों की गति पूर्वरत हो गयी. लेकिन तब से शनि देव अपने पिता सूर्या के विद्रोही बन गये और अपनी माता के परम प्रिय बन गये.

भारतीय ज्योतिष के अनुसार शनि की २ राशियाँ हैं मकर और कुम्भ. शनि ग्रह जब रोहिणी का भेदन करता है तो तब पृथिवी पर अकाल पड़ने लगता है और यही योग जब राजा दशरथ के समय आने वाला था- तब राजा दशरथ ने ज्योतिषियों का सहारा लिया और ज्योतिषियों ने कहा जब यह योग आएगा तब अन्न जल का अभाव होगा और अन्न जल के अभाव से प्रजा तड़फ  तड़फ कर मर जायेगी. दशरथ को चिंता हुई और नक्षत्र मण्डल में जाकर शनि देवता की प्रार्थना की और शनि स्त्रोत की  रचना कर नित्य शनि की अराधना करने लगे, शनि देवता प्रसन्न हुए और दशरथ जी को वर मांगने को कहा.

तब दशरथ जी ने कहा कि- जब तक सूर्या एवं नक्षत्रादि विद्यमान रहे तब तक आप किसी देवता, मनुष्य आदि को भी कष्ट न दें.

लेकिन शनि देव ने कहा- जो आपके द्वारा रचित शनि स्त्रोत्र का नित्य वाचन करता रहेगा उसे में कभी पीड़ा नही दूँगा, अन्यथा जो नही करेगा तो जब में गोचर वश भ्रमण करूँगा तो मृत्यु तुल्य कष्ट दूँगा.

इसलिए शनि की शान्ति हेतु श्री महामृत्यंजय जप, तिल लोहा, काला वस्त्र, कस्तूरी आदि दान करना चाहिए. गोचर में जब शनि चंद्र राशि पर भ्रमण करते हैं तो साढ़ेसाती मानी जाति है. प्रत्येक मनुष्य को ३० साल में एक साढ़ेसाती अवश्य आती है और साढ़ेसाती के दौरान शनि देवता पूर्व के किये हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य देते हैं. शनि के साढ़ेसाती के समय शनि स्त्रोत का पाठ, सुन्दरकाण्ड, महामृत्यंजय जप आदि करना शुभ रहता है.

शनि के साढ़ेसाती के काल में ईश्वर आराधन परमावश्यक है. शनि के साढ़ेसाती के काल मनुष्य को अच्छे कार्य करने के बारे में सोचना चाहिए और मन को सदैव प्रभु चरणों में लगाना चाहिए. ऐसा करने से शनि ग्रह संकट ग्रस्त स्तिथि में मनुष्य को दुःख के तीक्ष्ण घावों को सहन करने की अदुतीय शक्ति प्रदान करता है.

हमारा ब्यक्तिगत मत है कि ग्रहों की आराधना वंदन करना प्रत्येक मनुष्य का परम् कर्तव्य है, अन्यथा वह कष्ट का भाग्गेदार बनता है, ऐसे अनेक उदाहरण हमारे धर्म शास्त्रों और आज के लोक जीवन में देखने को मिलते हैं.

शुभम भूयात

आचार्य पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री (काण्डपाल)
कथा वाचक, वेदपाठी, कर्मकाण्डी एवं ज्योतिषी Acharya Vipin Krishna ShastriJyotishi, Vedpathi & Katha VachakMobile- 09015256658, 09968322014


Wednesday 10 September 2014

जीवन में धर्म की परम आवश्यकता

धर्म सदैव ऊचे स्थान पर प्रतिष्ठित है हमारे धर्म शास्त्र ,और संत महात्माओं के उपदेशों से सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण संसार धर्म पर प्रतिष्ठित है धर्म के विना यह मानव जीवन पशु के समान है धर्म का स्वरुप जैसा भी हो परन्तु धर्म का पालन प्रत्येक देश और जाति में सदा से चला आ रहा है लेकिन आज बड़ी दुःख की बात है कि धर्म प्राण भारतवर्ष में आज ईश्वर और धर्म के तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि धर्म ही हमारे सर्व नाश का कारण है धर्म के कारण ही देश परतंत्र हो रहा है ,धर्म ही हमारे सर्वांगीण विकास में वाधक है इस प्रकार कहने वाले लोग ईश्वर और धर्मवादियों को मूर्ख समझते हैं क्योकि वो अपने आप को अधिक बुद्धिमान और विद्वान समझने लगता है और उसे अपनी राय के प्रतिकूल दूसरे की अच्छी सम्मति भी पसंद नहीं आती है लेकिन पद्म पुराण में धर्म के लक्षण बताए हैं

ब्रह्मचर्येण सत्येन मखपंचकवर्तनै:
दानेन नियमैश्चापी क्षान्त्या शौचेन वल्लभ
अहिन्सया सुशान्त्या चअस्तेयेनापी वर्तनै:
एतैर्दशभिरंगैस्तु धर्म मेव प्रपूर्येत”

ब्रह्मचर्य,सत्य,पंचमहायज्ञ,दान,नियम,क्षमा ,शौच,अहिंसा ,शान्ति और अस्तेय इन अंगों से धर्म की पूर्ति करनी चाहिए .
तो अब बताइये क्या कोई व्यक्ति विद्या बुद्धि हीन,सत्य क्षमा रहित ,मन वाणी शरीर से अपवित्र ,हिंसा परायण अशांत ,दान रहित ,दूसरे का धन हरण कभी सुखी या उन्नति पा सकता है ?क्या कभी उसकी उन्नति हो सकती है ?क्या धर्म के इन तत्वों से हीन जाति कभी जगत में सुख पूर्वक टिक सकती है ?क्या प्रत्येक व्यक्ति ,प्रत्येक जाति के लिये धर्म के इन लक्षणों को चरितार्थ करने की नितांत आवश्यकता नहीं है ?धर्म का मूलच्छेद करने वाले लोग यदि गंभीरता से सोचे तो उन्हे भी समझ में आ जाएगा कि धर्म ही हमारे लोक परलोक का एक मात्र साथी है .धर्म मनुष्य को दुःख से निकालकर सुख की शीतल गोद में ले जाता है .

महाराणा प्रताप ,शिवाजी  का नाम धर्माभिमान के कारण ही अमर हुआ है .मीराबाई धर्म के लिये ही जहर का प्याला पी गई .विचार कीजिए यदि धर्म जाता रहेगा तो मनुष्यों में बचेगा ही क्या? आज धर्म के अभाव में ही पर धन हरण,माता –बहिनों का अपहरण ,दीनो पर अत्याचार् आदि अनेक प्रकार की घटनाये हो रही है फिर धर्म का विरोध क्यों?

सनातन धर्म कभी किसी दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता –

धर्मयों बाधते धर्मो न स धर्म:कुधर्मक:
अविरोधात्तु यों धर्म:स धर्म:सत्य विक्रम

जो दूसरे के धर्म का विरोध करता है वह धर्म नहीं कुधर्म है जो दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता वही यथार्थ धर्म है .फिर ऐसे सार्वभोम धर्म पर प्रश्न चिह्न क्यों?  

ये अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि कुछ लोगों ने अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिये धर्म का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया और जिसके कारण समाज में धर्म के प्रति संशय और दुर्भावना की स्थिति पैदा हो गयी लेकिन हमें यहं नही भूलना चाहिए एक आदर्श जीवन जीने के लिये जीवन में धर्म का होना नितांत आवश्यक है.

शुभम भूयात

पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री (काण्डपाल)
Pandit Vipin Krishna Shastri (Kandpal)