Wednesday 10 September 2014

जीवन में धर्म की परम आवश्यकता

धर्म सदैव ऊचे स्थान पर प्रतिष्ठित है हमारे धर्म शास्त्र ,और संत महात्माओं के उपदेशों से सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण संसार धर्म पर प्रतिष्ठित है धर्म के विना यह मानव जीवन पशु के समान है धर्म का स्वरुप जैसा भी हो परन्तु धर्म का पालन प्रत्येक देश और जाति में सदा से चला आ रहा है लेकिन आज बड़ी दुःख की बात है कि धर्म प्राण भारतवर्ष में आज ईश्वर और धर्म के तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि धर्म ही हमारे सर्व नाश का कारण है धर्म के कारण ही देश परतंत्र हो रहा है ,धर्म ही हमारे सर्वांगीण विकास में वाधक है इस प्रकार कहने वाले लोग ईश्वर और धर्मवादियों को मूर्ख समझते हैं क्योकि वो अपने आप को अधिक बुद्धिमान और विद्वान समझने लगता है और उसे अपनी राय के प्रतिकूल दूसरे की अच्छी सम्मति भी पसंद नहीं आती है लेकिन पद्म पुराण में धर्म के लक्षण बताए हैं

ब्रह्मचर्येण सत्येन मखपंचकवर्तनै:
दानेन नियमैश्चापी क्षान्त्या शौचेन वल्लभ
अहिन्सया सुशान्त्या चअस्तेयेनापी वर्तनै:
एतैर्दशभिरंगैस्तु धर्म मेव प्रपूर्येत”

ब्रह्मचर्य,सत्य,पंचमहायज्ञ,दान,नियम,क्षमा ,शौच,अहिंसा ,शान्ति और अस्तेय इन अंगों से धर्म की पूर्ति करनी चाहिए .
तो अब बताइये क्या कोई व्यक्ति विद्या बुद्धि हीन,सत्य क्षमा रहित ,मन वाणी शरीर से अपवित्र ,हिंसा परायण अशांत ,दान रहित ,दूसरे का धन हरण कभी सुखी या उन्नति पा सकता है ?क्या कभी उसकी उन्नति हो सकती है ?क्या धर्म के इन तत्वों से हीन जाति कभी जगत में सुख पूर्वक टिक सकती है ?क्या प्रत्येक व्यक्ति ,प्रत्येक जाति के लिये धर्म के इन लक्षणों को चरितार्थ करने की नितांत आवश्यकता नहीं है ?धर्म का मूलच्छेद करने वाले लोग यदि गंभीरता से सोचे तो उन्हे भी समझ में आ जाएगा कि धर्म ही हमारे लोक परलोक का एक मात्र साथी है .धर्म मनुष्य को दुःख से निकालकर सुख की शीतल गोद में ले जाता है .

महाराणा प्रताप ,शिवाजी  का नाम धर्माभिमान के कारण ही अमर हुआ है .मीराबाई धर्म के लिये ही जहर का प्याला पी गई .विचार कीजिए यदि धर्म जाता रहेगा तो मनुष्यों में बचेगा ही क्या? आज धर्म के अभाव में ही पर धन हरण,माता –बहिनों का अपहरण ,दीनो पर अत्याचार् आदि अनेक प्रकार की घटनाये हो रही है फिर धर्म का विरोध क्यों?

सनातन धर्म कभी किसी दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता –

धर्मयों बाधते धर्मो न स धर्म:कुधर्मक:
अविरोधात्तु यों धर्म:स धर्म:सत्य विक्रम

जो दूसरे के धर्म का विरोध करता है वह धर्म नहीं कुधर्म है जो दूसरे धर्म का विरोध नहीं करता वही यथार्थ धर्म है .फिर ऐसे सार्वभोम धर्म पर प्रश्न चिह्न क्यों?  

ये अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि कुछ लोगों ने अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिये धर्म का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया और जिसके कारण समाज में धर्म के प्रति संशय और दुर्भावना की स्थिति पैदा हो गयी लेकिन हमें यहं नही भूलना चाहिए एक आदर्श जीवन जीने के लिये जीवन में धर्म का होना नितांत आवश्यक है.

शुभम भूयात

पंडित विपिन कृष्ण शास्त्री (काण्डपाल)
Pandit Vipin Krishna Shastri (Kandpal)

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